नक्सल मुठभेड़: अनुभवी ‘सीआरपीएफ’ कमांडर क्यों रहते हैं नजरअंदाज, गोपनीय रिपोर्ट से लेकर प्रमोशन तक हैं कई सवाल
नक्सल मुठभेड़: अनुभवी 'सीआरपीएफ' कमांडर क्यों रहते हैं नजरअंदाज, गोपनीय रिपोर्ट से लेकर प्रमोशन तक हैं कई सवाल

बीजापुर में नक्सलियों के साथ हुई मुठभेड़ अपने पीछे कई अहम सवाल छोड़ गई है। इस ऑपरेशन में सीआरपीएफ की कोबरा विंग, डीआरजी और एसटीएफ जैसी विशेषज्ञ फोर्स शामिल थीं। सीआरपीएफ डीजी कुलदीप सिंह भले ही इसे रणनीतिक चूक नहीं मानते हैं, लेकिन इसी बल के पूर्व अधिकारी कुछ ऐसी बातों की तरफ इशारा कर रहे हैं, जो सीधे तौर पर जोखिम भरे ऑपरेशन की कमान संभालने वाले कमांडरों के मनोबल से जुड़ी हैं।
इतना ही नहीं, वे यह भी दावा करते हैं कि ऐसे ऑपरेशनों की रणनीति जो मौजूदा या पूर्व आईपीएस तैयार कर रहे हैं, उन्हें फील्ड स्तर की पूरी जानकारी नहीं है। पूर्व अफसरों ने केंद्रीय गृह मंत्रालय में लंबे समय से कार्यरत एक सलाहकार की भूमिका पर भी सवाल उठाए हैं। सीआरपीएफ के ग्राउंड कमांडर, जो नक्सलियों की रणनीति और उनके ठिकानों से वाकिफ हैं, ऑपरेशन का खाका खींचते वक्त उन्हें नजरअंदाज किया जाता है। मुंह खोलने पर गोपनीय रिपोर्ट खराब करने से लेकर उनके पदोन्नति रोकने, जैसी बातें ग्राउंड कमांडरों का मनोबल कमजोर कर रही हैं।
किन लोगों की राय से खींच रहे हैं ‘ऑपरेशन’ का खाका
सीआरपीएफ के तेजतर्रार पूर्व आईजी एसएस संधू बताते हैं, ऐसे में रणनीतिक चूक होती है। आला अफसर इस बात को कभी स्वीकार नहीं करेंगे, यह भी सच है। मेरा सवाल है, नक्सली ऑपरेशन में कौन लोग ऑपरेशन का खाका खींच रहे हैं। वे अफसर, जिन्हें जंगल की की कोई जानकारी नहीं है। नक्सलियों की रणनीति कैसे बदलती है, वे इसके बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते। जिन कैडर अधिकारियों को नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में काम करते हुए दशक बीत गया है, उनकी बातों को तव्वजो नहीं दी जाती।
संधू, जो स्वयं जगदलपुर में डीआईजी रहे हैं। नक्सलियों के कब्जे वाले ‘अबूझमाड़’ में सीआरपीएफ की 16 बटालियन खड़ी करने में उनकी खास भूमिका रही थी। वे कहते हैं, कई बार वहां के जंगलों में 30, 50 और 70 किलोमीटर तक का अंतर देखने को मिलता है। ऐसे में पार्टी को मदद मिलने देरी होती है। उसी जगह पर रिजर्व में कोई पार्टी नहीं होती। बतौर संधू, सीआरपीएफ के एक आईजी नलिन प्रभात हैं। एक दशक पहले दंतेवाड़ा में जब सीआरपीएफ के 76 जवान मारे गए थे, उस वक्त वे वहीं पर डीआईजी थे। उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। वजह, सियासत में उनके गहरे रसूख थे। मौजूदा समय में भी वे आईजी ‘ऑपरेशन’ हैं।
मार्च-अप्रैल में ही सुरक्षा बलों पर होते हैं बड़े हमले
संधू के मुताबिक, एसओपी बनाने का तरीका सही नहीं है। एक प्लाटून से अगर जवान ऑपरेशन के लिए निकलते हैं तो पीछे बचे जवानों पर नक्सली हमला हो सकता है। जब ये जानकारी है कि नक्सली कमांडर ‘हिडमा’ ने मिलिट्री बटालियन खड़ी कर रखी है। इसमें एक हजार से ज्यादा लड़ाके हैं। इसके बावजूद कम संख्या में जवानों को आगे भेज रहे हैं। ये एक रणनीतिक चूक है। ऑपरेशन का ये समय ठीक नहीं है। इस मौसम में सैंकड़ों किलोमीटर पैदल चलना, जवानों के लिए मुश्किल होता है। उन्हें स्वास्थ्य को लेकर कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।
अतीत में देखेंगे तो मालूम होगा कि नक्सलियों ने मार्च और अप्रैल में ही सुरक्षा बलों को बड़ा नुकसान पहुंचाया है। छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ के कैडर अफसर को आईजी नहीं बनाया जाता, वहीं नक्सल क्षेत्र के लिए गैर-अनुभवी एक आईपीएस को कमान सौंप देते हैं। कमांडरों के मनोबल को तब ठेस पहुंचती है, जब उन्हें समय पर पदोन्नति नहीं मिलती। उनकी वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट खराब कर दी जाती है। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में कई अफसरों के साथ ऐसा हुआ है। जिन युवा अफसरों ने अपने हकों के लिए कोर्ट में गुहार लगाई, उनकी एसीआर खराब कर दी गई। अभी तक 35 अफसरों के प्रमोशन की फाइल अटकी है। जिन कमांडरों को पांच-छह शौर्य पदक हैं, वे अभी टूआईसी के पद तक पहुंचे हैं, जबकि नियमानुसार उन्हें अब डीआईजी बन जाना चाहिए था