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आम सहमति की राजनीति का अभाव, प्रस्तावित सुधार पर विचार किए बिना ही उसका विरोध बन गया है रिवाज

आम सहमति की राजनीति का अभाव, प्रस्तावित सुधार पर विचार किए बिना ही उसका विरोध बन गया है रिवाज

आम सहमति की राजनीति का अभाव, प्रस्तावित सुधार पर विचार किए बिना ही उसका विरोध बन गया है रिवाज
कुछ साल पहले कृषि सुधार की कोशिश हुई थी। यह एक बड़ी पहल थी जो जमीन पर उतरती तो देश और किसानों की उन्नति को पंख लग जाते लेकिन किसानों की आड़ में राजनीतिक रोटियां सेंकी गईं। भारतीय कृषि को वैश्विक बाजार से जोड़ने की जो कवायद एक झटके में हो सकती थी उसे पाने के लिए अब लंबी जद्दोजहद करनी होगी।

आम सहमति की राजनीति का अभाव, प्रस्तावित सुधार पर विचार किए बिना ही उसका विरोध बन गया है रिवाज
सामान्य बात हो गई है कि विपक्षी दल प्रस्तावित सुधार पर विचार किए बिना ही उसका विरोध करने लगे हैं।

सामान्य तौर पर हर दवाई की तरह सुधार का घूंट भी कड़वा होता है। अगर जल्द दुरुस्त होने की इच्छा न हो तो मन नहीं होता दवाई लेने का, कोई न कोई बहाना ढूंढ़ ही लिया जाता है। प्रशासनिक, आर्थिक, राजनीतिक और चुनावी जीवन में भी ऐसा ही होता है। सुधारों को किसी भी तरह टालने का प्रयास किया जाता है। न्यायपालिका में सुधार की कोशिश हुई तो उसे खारिज कर दिया गया। राजनीति में अपराधियों के दखल को रोकने को कोई दल स्वीकारने को राजी नहीं।

अब एक बड़ी चर्चा पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने को लेकर छिड़ी है तो कई दल आसमान सिर पर उठाए घूम रहे हैं। दुहाई दी जा रही कि संघीय ढांचा चरमरा जाएगा और लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। सच यह है कि हर किसी को पता है कि साल में औसतन चार-पांच चुनाव और उनके चलते सरकारी खजाने पर पड़ने वाले हजारों करोड़ का बोझ झेलने वाले देश को इस समस्या से पार पाने की जरूरत है।

चुनाव सुधार का मामला सीधे तौर पर राजनीतिक दलों के हित-अहित से जुड़ा है। परेशानी की बात यह है कि विपक्षी दलों को कभी भी कोई सुधार का कदम रास नहीं आता। वे सुधार की हर पहल का विरोध करते हैं। सुधारों के मामले में आम सहमति की राजनीति का अभाव बढ़ता जा रहा है। विपक्षी दल प्रस्तावित सुधारों की गहराई में जाए बिना ही उसका विरोध करने लगते हैं।

जीएसटी के बाद से ऐसा कुछ ज्यादा ही हो रहा है। छह साल पहले शुरुआती तौर पर जीएसटी के विरोध के बाद आम सहमति बन गई थी। कांग्रेस ने भी उसका समर्थन कर दिया, लेकिन दिल से स्वीकार नहीं कर पाई। चुनाव आते ही कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी की ओर से उसे ‘गब्बर सिंह टैक्स’ का नाम दे दिया गया। आज तक कांग्रेस उसकी आलोचना करती है। यदि जीएसटी का विरोध करना था तो फिर समर्थन क्यों दिया था? क्या इसलिए, क्योंकि तब ऐसी चर्चा थी कि जिस देश में जीएसटी जैसी व्यवस्था लागू हुई, वहां सरकार वापस नहीं आ पाई? भारत में इसका उलटा हुआ। मोदी सरकार और बड़े बहुमत से आ गई।

यह एक सच्चाई है कि जीएसटी के कारण जनकल्याण और विकास कार्यों के लिए सरकार के खजाने में ज्यादा पैसे आ रहे और खर्च भी हो रहे हैं। कोविड काल में सरकार अधिक पूंजीगत व्यय कर पाई तो उसमें जीएसटी का भी हाथ था। जीएसटी से अनियोजित व्यापार नियोजित हुआ, लोगों को सरकारी योजनाओं का लाभ मिलना शुरू हुआ और देश के खजाने में ज्यादा पैसे आने लगे तथा विकास कार्यों पर खर्च बढ़ा।

कुछ साल पहले कृषि सुधार की कोशिश हुई थी। यह एक बड़ी पहल थी, जो जमीन पर उतरती तो देश और किसानों की उन्नति को पंख लग जाते, लेकिन किसानों की आड़ में राजनीतिक रोटियां सेंकी गईं। भारतीय कृषि को वैश्विक बाजार से जोड़ने की जो कवायद एक झटके में हो सकती थी, उसे पाने के लिए अब लंबी जद्दोजहद करनी होगी। यदि राजनीतिक दल कृषि सुधार में आड़े आएंगे तो एक समय बाद खुद किसान ही इसकी मांग करेंगे।

कृषि सुधारों की तरह बिजली क्षेत्र में भी सुधारों का विरोध हो रहा है। चूंकि कई राज्यों के चुनावों में मुफ्त बिजली के वादे का असर दिखता है, इसलिए बिजली सुधार भी अटके हैं। विपक्षी दल उस विधेयक पर सहमत नहीं, जिसमें कहा गया है कि सब्सिडी देने वाले राज्यों को डिस्काम के खाते में पैसा जमा करना पड़ेगा। इस विधेयक में यह प्रस्ताव भी है कि उपभोक्ताओं को बिजली कंपनी चुनने का अधिकार मिलना चाहिए। विपक्षी दलों के रवैये के कारण इस पर सहमति नहीं बन पा रही है।

एक देश-एक चुनाव के विरोध में खड़े लोग यह तर्क दे रहे हैं कि यह संघीय ढांचे के खिलाफ ही नहीं, जनता के लिए भी अहितकारी है। सच यह है कि जब अनुच्छेद 356 के मनमाने इस्तेमाल से राज्य सरकारों को बर्खास्त करने का सिलसिला शुरू हुआ, तब संघीय ढांचे पर सीधा प्रहार हुआ। उसी का नतीजा है कि चुनावी क्रम बिगड़ने से हर चार-छह माह में चुनाव होने लगे हैं।

आखिर एक साथ चुनाव जनता के अहित में कैसे है? क्या इसका आकलन किया गया है कि रह-रहकर चुनाव होने से विकास कार्यों में जो बाधा आती है, उससे कितना नुकसान होता है? चुनावों में जो झूठे और पूरे न होने वाले वादे किए जाते हैं, उनकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती। राजनीतिक दल ऐसे घोषणापत्र के सुझाव को मानने को तैयार नहीं, जिसमें कोई वादा करने से पहले यह बताना जरूरी हो कि उसे कैसे पूरा करेंगे? उसमें खर्च होने वाले पैसे कहां से लाएंगे? अभी कुछ महीने पहले कर्नाटक में चुनाव हुए, जहां कांग्रेस ने बड़े वादे किए। अब राज्य के उपमुख्यमंत्री एवं वित्तमंत्री कह रहे हैं कि उन वादों को पूरा करना है, इसलिए कम से कम एक साल विकास पर पैसा खर्च नहीं किया जा सकता।

एक साथ चुनाव होने से सरकारी खजाने के हजारों करोड़ रुपये की बचत होगी, जो राशि विकास के कामों पर खर्च हो सकेगी। राजनीति में जो कड़वाहट भर गई है, उसके पीछे भी एक बड़ा कारण बार-बार होने वाले चुनाव हैं। देश लगातार चुनावी मुद्रा में रहता है। एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा के चलते राजनीतिक दलों के पास एक साथ मिलकर किसी काम को अंजाम तक ले जाने का वक्त नहीं होता।

लोकसभा के साथ ही विधानसभा चुनाव के बावजूद ओडिशा में बीजद लगातार सत्तारूढ़ है। फिर भय किस बात का? ऐसे और भी तमाम उदाहरण मौजूद हैं। इसलिए, जनता की समझ को कमतर नहीं आंकना चाहिए। राजनीतिक दलों और उनके नेता की विश्वसनीयता होगी तो उन्हें कोई चुनावी व्यवस्था नहीं बदल सकती।

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