अजित पवार के राजनीतिक कदम को क्या चाचा शरद पवार की मौन सहमति हासिल थी?
अजित पवार के राजनीतिक कदम को क्या चाचा शरद पवार की मौन सहमति हासिल थी?

अजित पवार के राजनीतिक कदम को क्या चाचा शरद पवार की मौन सहमति हासिल थी?
महाराष्ट्र की राजनीति में रविवार को आए एक बड़े राजनीतिक भूचाल के बाद अब छोटे पवार (अजित पवार) ‘पावर’ में आ गए हैं लेकिन बड़े पवार यानी शरद पवार ने जिस तरह से अजित पवार की बगावत और अपनी पूरी पार्टी छिन जाने के बाद भी एक शांत और संयमित प्रतिक्रिया दी है, उससे अपने आप में यह सवाल उठ रहा है कि क्या वाकई शरद पवार इस पूरे राजनीतिक घटनाक्रम से अनजान थे? क्या उन्हें पता नहीं था कि उनके भतीजे अजित पवार एक बार फिर से पार्टी विधायकों को तोड़कर भाजपा के साथ जा रहे हैं? क्या उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं था कि छगन भुजबल जैसे उनके सहयोगी भी इस बार एनडीए गठबंधन के साथ जा रहे हैं? क्या उन्हें इस बात का भी अंदाजा कतई नहीं लगा कि उनके सबसे पुराने राजदार और करीबी प्रफुल्ल पटेल, जिन्हें उन्होंने हाल ही में अपनी बेटी सुप्रिया सुले के साथ पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया था, वे भी इस बार बगावत करने वाले उनके भतीजे के साथ खड़े हैं? क्या वाकई शरद पवार इस पूरे घटनाक्रम से अनजान थे या फिर उन्होंने अपनी पार्टी के नेताओं और खासकर परिवार के सदस्यों को जांच एजेंसी ईडी की जांच और जेल जाने से बचाने के लिए इस बगावत को अपनी मौन सहमति और स्वीकृति दे रखी थी?
हालांकि इस बारे में फिलहाल अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी। लेकिन भतीजे अजित पवार के एकनाथ शिंदे-देवेंद्र फडणवीस सरकार में उपमुख्यमंत्री बनने के बाद पत्रकारों से बात करते हुए शरद पवार ने जिस अंदाज में यह कहा कि वह इस मसले पर अदालत में नहीं जाएंगे बल्कि जनता के बीच जाकर अपनी बात रखेंगे, उससे अपने आप में कई सवाल खड़े हो रहे हैं। दिलचस्प तथ्य तो यह है कि एक तरफ जहां अजित पवार यह दावा कर रहे हैं कि पार्टी के सांसद, विधायक और नेता उनके फैसले के साथ हैं, वे एनसीपी पार्टी के साथ एनडीए गठबंधन में शामिल हुए हैं और वह राज्य में होने वाले आगामी चुनावों को अपनी एनसीपी पार्टी के बैनर तले और एनसीपी के चुनाव चिन्ह पर ही लड़ेंगे वहीं दूसरी तरफ शरद पवार अदालत की बजाय जनता के बीच जाने की बात कर रहे हैं। यह बात तो तय है कि अगर शरद पवार ने अजित पवार के इस फैसले को चुनौती नहीं दी तो विधानसभा के अंदर और विधानसभा के बाहर उनकी पार्टी एनसीपी पर अजित पवार का कब्जा हो जाएगा और वह एनसीपी के नाम से एनसीपी के चुनाव चिन्ह पर अपने उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारेंगे तो ऐसे में जनता के बीच में जाकर शरद पवार किस पार्टी के नाम से, किस चुनाव चिह्न पर जनता का समर्थन मांगेंगे ? जाहिर-सी बात है कि शरद पवार को पार्टी पर कब्जा बनाए रखने के लिए अपनी बात से पलटना होगा और विधानसभा स्पीकर से लेकर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक का दरवाजा खटखटाना होगा लेकिन अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो यह माना जाएगा कि यह सब कुछ उनकी सहमति से हुआ है और शरद पवार अपने इस एक मास्टर स्ट्रोक के जरिए भाजपा, उद्धव ठाकरे और कांग्रेस के साथ-साथ विपक्षी एकता की मुहिम में जुटे देश के अन्य विपक्षी दलों को भी एक संदेश देना चाहते हैं।
यह बात तो तय है कि भाजपा ने अजित पवार को अपने पाले में लाकर एक तीर से कई निशाने साधे हैं। एक तरफ जहां उन्होंने महाराष्ट्र में महा विकास आघाडी में शामिल तीनों राजनीतिक दलों- कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) और एनसीपी की एकता को तोड़कर विपक्ष को कमजोर कर किया है तो वहीं दूसरी तरफ उन्होंने एकनाथ शिंदे की ताकत को भी बैलेंस कर दिया है। बदले हालात में एकनाथ शिंदे अब भाजपा से बहुत ज्यादा डिमांड करने की हालत में नहीं रह गए हैं क्योंकि जितने विधायक उनके पास हैं उतने ही विधायकों के अपने पास होने का दावा अजित पवार भी कर रहे हैं। अजित पवार को साथ लेकर भाजपा ने जहां लोकसभा चुनाव के समीकरण को भी दुरुस्त करने का काम किया है। वहीं राज्य के ओबीसी, दलित और मुस्लिम मतदाताओं को भी संदेश देने का काम किया है तो वहीं दूसरी तरफ शरद पवार के गढ़ कहे जाने वाले बारामती में वर्तमान सांसद और उनकी बेटी सुप्रिया सुले को भी घेरने का पूरा इंतजाम कर दिया है। भाजपा राज्य में लोकसभा की सभी 48 सीटें जीतना चाहती है और उसे यह लगता है कि एकनाथ शिंदे और अजीत पवार की ताकत के सहारे भाजपा इस बार महाराष्ट्र में शरद पवार, उद्धव ठाकरे और कांग्रेस के तमाम मजबूत गढ़ों को भी ढहाने जा रही है।
लेकिन अगर शरद पवार ने अजित पवार को चुनौती नहीं दी तो फिर इसके कई मतलब और मायने निकाले जाएंगे क्योंकि महाराष्ट्र की राजनीति को और शरद पवार को करीब से जानने वाले यह बताते हैं कि बिना उनकी सहमति के उनकी पार्टी में इतना बड़ा कदम कोई भी नहीं उठा सकता है, ना तो प्रफुल्ल पटेल उठा सकते हैं और न ही अजित पवार उठा सकते हैं और न ही छगन भुजबल। बताया तो यहां तक जा रहा है कि एनसीपी के अंदर एक विचार यह बनने लगा था कि फिलहाल अपने नेताओं को जांच एजेंसी और जेल जाने से बचाने के लिए भाजपा गठबंधन में शामिल हो लिया जाए, गठबंधन की लोकप्रियता का फायदा उठाया जाए और अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनावों में अपनी स्थिति को मजबूत कर लिया जाए और अगर वाकई शरद पवार इसी नीति पर काम कर रहे हैं तो फिर हमें उनकी नई गुगली का इंतजार करना पड़ेगा। वहीं विपक्षी एकता की मुहिम में जुटे तमाम विरोधी दलों को भी शरद पवार को बनने वाले नए विपक्षी गठबंधन में एक बड़ी भूमिका देने पर विचार करना होगा।