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Mirza Ghalib को मिलती थी 100 रुपये की पेंशन, कर्ज में डूबने के कारण थी बड़ी चिंता

Mirza Ghalib को मिलती थी 100 रुपये की पेंशन, कर्ज में डूबने के कारण थी बड़ी चिंता

Mirza Ghalib को मिलती थी 100 रुपये की पेंशन, कर्ज में डूबने के कारण थी बड़ी चिंता
मिर्जा गालिब को उर्दू और फारसी का महान शायर माना जाता है, जो अपनी मृत्यु के 150 वर्षों के बाद भी बेहद मशहूर हैं। उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज भी उसी उत्साह के साथ साहित्य प्रेमी उन्हें पढ़ते हैं और सुनते हैं। हालांकि गालिब का पूरा जीवन जिंदादिली के साथ बीता मगर अंतिम समय में उनके साथ कुछ अच्छा नहीं हुआ।

जीवनभर अपने शब्दों से लोगों के दिल में घर करने वाले मिर्जा गालिब खुद ही चलने फिरने में लाचार हो गए थे। यहां तक की कर्ज में भी डूबे हुए थे। जीवन में चल रही तमाम परेशानियों के बावजूद गालिब मस्त ही रहते थे। खराब समय में वो बिस्तर पर रहे, जिसका जिक्र भी खुद उन्होंने किया है।

बता दें कि मिर्जा गालिब का निधन 15 फरवरी 1869 को 71 वर्ष की उम्र में हुआ था। उनकी यादों को बाद में उनकी हवेली में सजाया गया है, जिसे म्यूजियम में तब्दिल किया गया है। ये हवेली दिल्ली के बल्लीमारान इलाके में है। गालिब के चाहने वाले पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक में जाकर इस हवेली को देख सकते है। इस हवेली में मिर्जा गालिब की यादों को संजोकर रखा गया है। मिर्जा गालिब को चाहने वाले आज भी इस हवेली में जाकर उनकी यादों को ताजा करते है। उन्होंने इस समय परंपराओं से हटकर नया काम किया, जिससे उनकी कला को नया आयाम मिला है। आज के समय में भी उनके लिखे गीत, शायरी ताजगी का ही अहसास कराती है। उनकी लिखावट हर तरह से ऐसी है जो हर समय में फिट बैठ जाती है।

बता दें कि मिर्जा गालिब का जन्म आगरा में हुआ था। उनका पूरा नाम मिर्ज़ा असदुल्लाह खान ग़ालिब था। मिर्जा गालिब का जीवन काफी परेशानियों भरा रहा था। उनके निजी जीवन की बात करें तो उनका जीवन दुखों भरा रहा। उन्हें कभी पारिवारिक सुख नहीं मिला। उनके सात बेटे और बेटियां हुए मगर कोई जीवित नहीं बचा था। अपने जीवन को शब्दों को सौंपने वाले मिर्जा गालिब का अंतिम समय काफी कठिनाइयों से भरा रहा था, जब वो कई मुश्किलों और बीमारियों से घिरे हुए थे। हमेशा जिंदादिल रहने वाले मिर्जा गालिब इस दौरान इतने टूट चुके थे कि इस दौरान गम उनके अंदर घर कर गया था। कर्जदार होने के कारण उन्हें कर्ज की चिंता खाए जा रही थी।

कर्ज उतारने के लिए उनके पास अधिक साधन नहीं थे। यही कारण था कि अंतिम समय में वो काफी परेशान रहे थे। उनकी अंतिम इच्छा थी कि वो कर्ज के नीचे दबकर नहीं बल्कि कर्ज चूकाने के बाद दुनिया से विदा लें, मगर ऐसा नहीं हो सका था। मृत्यु से दो-तीन वर्ष पहले ही मिर्जा गालिब की स्थिति काफी खराब हो चुकी थी। उनका चलना फिरना भी बंद हो चुका था और वो दूसरो पर आश्रित हो गए थे।

वर्ष 1867 में उन्होंने एक खत लिखा था जिसमें उन्होंने बताया था कि वो अहाते में सोते है। सुबह दो आदमी उठाकर मुझे अंधेरी कोठरी में डालते है, जहां मैं दिन भर पड़ा रहता हूं। शाम को फिर अंधेरी कोठरी से दो आदमी निकालकर आंगन में पलंग पर लाकर डालते है।

रामपुर के नवाब को लिखे थे खत

जानकारी के मुताबिक वर्ष 1867 से 1869 के दौरान मिर्जा गालिब ने रामपुर के नवाब को कई खत लिखे थे क्योंकि उनकी इच्छा थी कि वो कर्जदार होकर ना मरें। इसी बेचैनी के बीच 17 नवंबर 1868 को मिर्जा गालिब ने रामपुर के नवाब को खत लिखकर बताया कि मेरी हालत बदतर हो गई है। आपके दिए हए 100 रुपये वजीफे में से सिर्फ 54 रुपये ही शेष बचे है। मुझे अपनी इज्जत बचाने के लिए 800 रुपये चाहिए। बता दें कि रामपुर के नवाब हर महीने मिर्जा गालिब को 100 रुपये पेंशन देते थे, जिससे उनका खर्च चल सके।

रामपुर के नवाब ने नहीं की मदद

हालांकि रामपुर के नवाब ने उनके पत्रों को तवज्जों नहीं दी। मिर्जा गालिब ने तीन महीने पहले फिर से खत लिखा था। इस खत में उन्होंने लिखा था कि वो कर्ज के साथ मरना नहीं चाहते है क्योंकि वो कुलीन और खुद्दार व्यक्ति है, जिसके लिए कर्ज लेकर मरना शर्म की बात होगी। हालांकि उनकी ये ख्वाहिश पूरी नहीं हो सकी।

बता दें कि मौत से एक महीना पहले 10 जनवरी को मिर्जा गालिब ने अंतिम खत नवाब को लिखा था जिसमें उन्होंने कहा कि हुजूर परवरदिगार ने मुझे तबाही के पास ला खड़ा किया है। मैं अपको याद दिलाने का फर्ज अदा कर रहा हूं। बाकी हुजूर की मर्जी। ये मिर्जा गालिब का नवाब को लिखा अंतिम खत था। इस खत के बाद मिर्जा गालिब को वजीफे के 100 रुपये ही दिए गए थे, जो उन्हें 15 फरवरी को अपनी मौत से एक घंटा पहले मिला था। ये वजीफा पाने के बाद मिर्जा गालिब ने कर्ज के बोझ के तले ही अपने प्राण त्याग दिए थे।

इस विधि से हुआ था अंतिम संस्कार

दरअसल मिर्जा गालिब शिया थे, मगर मृत्यु के बाद इसे लेकर भी चर्चा हुई कि उनका अंतिम संस्कार शिया से हो या सुन्नी तरीके थे। नवाब ज़ियाउद्दीन और महमूद ख़ाँ ने अंत में सुन्नी विधि से ही सब क्रिया क्रम किया। उनके शव को गौरव के साथ अपने वंश के क़ब्रिस्तान (जो चौसठ खम्भा के पास है) में अपने चचा के पास जगह मिली थी।

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