पंजाब चुनाव: बसपा और अकाली दल के गठबंधन का क्या है सियासी समीकरण?
पंजाब चुनाव: बसपा और अकाली दल के गठबंधन का क्या है सियासी समीकरण?

अगले साल पंजाब में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए बसपा और शिरोमणि अकाली दल के बीच गठबंधन हुआ है। उत्तर प्रदेश में अच्छा वजूद रखने वाली बसपा अब पंजाब में अपना भविष्य तलाश रही है। दलित राजनीति के इर्द-गिर्द रहने वाली बसपा मायावती के नेतृत्व में आगे बढ़ रही है। पंजाब में भी बसपा की ओर से लगातार कोशिशें की गई लेकिन कभी वहां अलग पहचान नहीं बन पाई। एक बार फिर से पंजाब में बसपा नया प्रयोग कर रही है। यही कारण है कि बसपा और शिरोमणि अकाली दल दोनों एक साथ एक प्लेटफार्म पर दिखाई दे रहे हैं। फिलहाल इस कोशिश के जरिए पंजाब में सिख जट और दलितों को एक साथ लाने की कोशिश की जा रही है। यह ठीक वैसा ही प्रयोग है जैसा कि हमने उत्तर प्रदेश में कई दलों के द्वारा देखा है जिसमें दलित+ब्राह्मण या दलित + मुस्लिम होती आई है।
सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर इस गठबंधन की जरूरत क्यों पड़ी? इस गठबंधन की शुरुआत तभी से हो गए थी जब शिरोमणि अकाली दल ने किसानों के मुद्दे पर भाजपा से अलग होने का फैसला किया था। भाजपा के साथ उसने अपनी बहुत पुरानी दोस्ती तोड़ दी। हालांकि, भाजपा और शिरोमणि अकाली दल के रिश्तों के बीच खटास आने की शुरुआत तब हो गई थी जब भगवा पार्टी के राष्ट्रीय प्रभारी दुष्यंत कुमार गौतम ने यह कहा था कि पंजाब में अकाली दल की वजह से बीजेपी की नैया डूबी है। वहां के मतदाताओं में भाजपा को लेकर नाराजगी नहीं थी। वह नाराजगी अकाली दल को लेकर थी और इसकी कीमत भाजपा को चुकानी पड़ी। अंकगणित के हिसाब से देखें तो पंजाब में बसपा और शिरोमणि अकाली दल का गठबंधन मजबूत नजर आता है। भाजपा के अलग होने के बाद शिरोमणि अकाली दल को अकेले ही चुनाव लड़ना पड़ता, उसे कांग्रेस और आम आदमी पार्टी से जबरदस्त टक्कर मिलती जैसा कि पिछले विधानसभा चुनाव में भी हुआ था।
शिरोमणि अकाली दल पिछले विधानसभा चुनाव में सत्ता विरोधी लहर की वजह से नंबर तीसरे नंबर की पार्टी बन गई। पहला विधानसभा चुनाव लड़ रही आम आदमी पार्टी दूसरे नंबर की पार्टी बन गई। शिरोमणि अकाली दल को अपने वजूद को मजबूत करने के लिए एक गठबंधन की जरूरत थी। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी दोनों में से किसी के साथ गठबंधन हो नहीं सकता था। भाजपा के साथ उसने तोड़ दिया है। ऐसे में उसके पास सिर्फ बसपा ही बचा था। हालांकि 1996 में भी बसपा और शिरोमणि अकाली दल के बीच गठबंधन हो चुका था। दूसरी ओर बसपा की भी बात करें तो उसे भी पंजाब में पुनर्जीवित होने के लिए एक मजबूत साथी की जरूरत थी। 1992 के चुनाव में बसपा यहां 9 सीटें जीती थी। उसके हिस्से में 16% वोट आए थे। हालांकि उसके बाद बसपा के प्रदर्शन में लगातार कमी आती रही। बाद में ऐसी स्थिति आई कि बसपा एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हो पा रही थी। 2017 के चुनाव में बसपा ने 111 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे इसमें से 110 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी और वोट प्रतिशत महज डेढ़ रहा था।
पंजाब में अकाली दल के स्थिति फिलहाल कमजोर दिख रही है। ऐसे में बसपा का साथ उसके लिए बेहद ही जरूरी था। पंजाब में दलित आबादी 32% है। माना जा रहा है कि मायावती पंजाब में चुनाव प्रचार करती हैं तो अकाली दल के पक्ष में माहौल बन सकता है। जाट की आबादी 25% है। यह बात भी सच है कि राजनीति में समीकरण हमेशा 2 + 2= 4 नहीं होता। ऐसा होता तो उत्तर प्रदेश में फिलहाल भाजपा की सरकार नहीं होती। हमने देखा था उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के दौरान कैसे कांग्रेस और सपा एक साथ थी। लेकिन फिर भी उसे जीत नहीं मिली। 2019 के चुनाव में बसपा और सपा एक साथ हुई फिर भी यह गठबंधन अच्छा नहीं कर सकी। बसपा का 25% जबकि सपा का 28% वोट भी भाजपा को करारी शिकस्त नहीं दे सकी। पंजाब में समीकरण कितना रंग लाएगा यह तो वक्त ही बताएगा। लेकिन यह बात सच है कि दोनों दलों के साथ आने से कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के लिए चुनौतियां बढ़ गई हैं।