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कौन हैं गाड़िया लोहार, जो आज तक निभा रहे महाराणा प्रताप को दी कसम, युद्ध के लिए बनाते थे हथियार

कौन हैं गाड़िया लोहार, जो आज तक निभा रहे महाराणा प्रताप को दी कसम, युद्ध के लिए बनाते थे हथियार

आप जब घर से निकलते होंगे तो कहीं-कहीं आपको सड़क किनारे कुछ लोग लोहे के बर्तन और घरेलू इस्‍तेमाल वाले औजार बेचते हुए दिखते होंगे. ये लोग पूरे परिवार के साथ सड़क किनारे अस्‍थायी तौर पर बस जाते हैं. फिर कुछ समय बाद उस जगह को छोड़कर दूसरी जगह चले जाते हैं. ज्‍यादातर लोगों को लगता है कि ये बंजारे हैं. लेकिन, हम आपको बता दें कि ये बंजारे नहीं है. दरअसल, ये खानाबदोश और मुश्किल हालात में फटेहाल जीवन जी रहे लोग आम नहीं, बेहद खास हैं. दरअसल, इनका महाराणा प्रताप से बहुत करीबी संबंध रहा है

गाड़िया लोहार समुदाय को गाडुलिया लोहार या सिर्फ लोहार भी कहा जाता है. गाड़िया लोहार राजस्‍थान और उत्तर प्रदेश का खानाबदोश समुदाय है. ये मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में भी पाए जाते हैं. ये लोहे के बर्तन और घरों में इस्‍तेमाल होने वाले औजार बनाकर गुजर-बसर करते हैं. इसके अलावा ये समुदाय कृषि और बागवानी में इस्‍तेमाल होने वाले छोटे औजार भी बनाते हैं. बता दें कि ये ईरान, पाकिस्‍तान और भारत के लोहार वंश से अलग समुदाय होता है.

समुदाय का नाम ‘गाड़िया लोहार’ कैसे पड़ा
यूनेस्‍को कूरियर में अक्‍टूबर 1984 में लिखे लेख ‘गडुलिया लोहार: भारत के घुमंतू लोहार’ में लेखक कोबास पुएंते ने बताया कि इस समुदाय के लोग अपने परिवारों के साथ बैलगाड़ी पर एक जगह से दूसरी जगह तक जाते हैं. इसे हिंदी में गाड़ी कहा जाता है. इसलिए इनका नाम ‘गाड़िया लोहार’ पड़ा. वह लिखते हैं कि गाड़िया लोहार समुदाय के पूर्वज मेवाड़ की सेना में लोहार थे. वे मेवाड़ के महाराणा प्रताप के वंशज होने का दावा भी करते हैं. जब मेवाड़ पर मुगलों ने कब्‍जा कर लिया, तो महाराणा प्रताप जंगल की ओर चले गए. जंगल में उनकी मुलाकात उन लोगों से हुई, जिन्होंने उनकी और उनके परिवार की मदद की.

महाराणा को क्‍या दी कसम, जिसे निभा रहे
‘गाड़िया लोहार’ समुदाय के पूर्वजों ने परिवार के साथ जंगल में भटक रहे महाराणा प्रताप को कसम दी थी कि जब तक वह चित्तौड़गढ़ पर वापस जीत हासिल नहीं कर लेते, तब तक वे कभी भी अपनी मातृभूमि नहीं लौटेंगे और ना ही कभी कहीं बसेंगे. उन्‍होंने प्रतिज्ञा दी कि उनके चित्‍तौड़गढ़ लौटने तक उनके परिवार कभी भी एक छत के नीचे नहीं रहेंगे. दुर्भाग्‍य से महाराणा प्रताप कभी चित्तौड़ नहीं जीत पाए. इसलिए लोहार समुदाय आज भी महाराणा को दी अपनी प्रतिज्ञा पर कायम हैं. इसीलिए वे ना तो किसी एक जगह बसते हैं और ना ही घर बनाते हैं. उनकी पूरी जिंदगी एक बैलगाड़ी में ही सिमटी रहती है. हालांकि, अब बैलगाड़ी की जगह नए वाहनों ने ले ली.

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समुदाय कैसे करता है रोटी का इंतजाम
घुमंतू जनजाति गाड़िया लोहार अपने अनोखे और कठोर परिश्रम से दुनिया भर में जाने जाते हैं. इस जनजाति के लोग पूरी जिंदगी इधर-उधर घूमकर सड़क के किनारे निकाल देते हैं. आज भी ये लोग सड़क किनारे कच्चे घर बनाकर अपना पूरा जीवन बिता देते हैं. महाराणा प्रताप के लिए हथियार बनाने वाले गाड़िया लोहार अब दो वक्त की रोटी के लिए पूरे-पूरे दिन लोहे के औजार बनाते हैं. समुदाय के लोगों की सजी-धजी गाड़ियां इनकी पहचान बनी हुई हैं. हालांकि, अब ऐसी सजी-धजी गाड़ियां इनके सड़क किनारे कच्चे घरों में ही दिखती हैं. पहले वे इन गाड़ियों से ही व्यापार करने जाते थे. समय के साथ लोहे के औजारों का इस्‍तेमाल कम होने के कारण अब लोग रिक्शा गाड़ी का इस्‍तेमाल करने लगे हैं.

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महाराणा प्रताप की सेना में थे शामिल
गाड़िया लोहार समुदाय के पूर्वज महाराणा प्रताप की सेना में शामिल थे. वे उनकी सेना के लिए घातक हथियार बनाते थे. इस समुदाय ने महाराणा प्रताप के किला छोड़ने के बाद ही चित्‍तौड़गढ़ छोड़ दिया था. तब से देश के अलग-अलग हिस्‍सों में भटक रहे इस समुदाय को कोई सरकार सुविधा नहीं मिल पाती है. यही नहीं, जरूरी कागजात नहीं होने के कारण उनके बच्‍चों को स्‍कूलों में दाखिला भी नहीं मिल पाता है. हालांकि, अब समुदाय के कुछ लोगों ने अपने बच्‍चों की पढ़ाई-लिखाई पर भी ध्‍यान देना शुरू कर दिया है. देश में आधुनिक मशीनें आने के बाद से लोग उनके औजारों को कम ही खरीदते हैं. ऐसे में कबीले के सदस्यों को दो वक्त की रोटी के लिए लोहा-प्लास्टिक बीनकर और मेहनत मजदूरी तक करनी पड़ रही है.

समय के साथ कमजोर पड़ रही प्रतिज्ञा
दिल्ली और आसपास के इलाकों में करीब 40,000 गाड़िया लोहार रहते हैं. इसके अलावा राजस्‍थान के हर जिले में समुदाय के लोग मिल जाते हैं. अब ये समुदाय देश के कई राज्‍यों में फैल गया है. महाराणा प्रताप की प्रतिज्ञा से बंधे समुदाय के लोग अब अपने बच्चों को व्यवस्था में शामिल करने की इच्‍छा जताते हैं. वे चाहते हैं कि उनके बच्‍चे प्रतिज्ञा को तोड़कर आगे बढ़ें और अपना भविष्य सुधारें. बता दें कि इस समुदाय के ज्यादातर डेरे गांवों के बाहर ही मिलते हैं. समुदाय के लोग किसी दूसरे समुदाय के साथ मेलजोल पसंद नहीं करते हैं. इनका खानपान और रिश्तेदारियां समुदाय के भीतर ही होती हैं. इनकी भाषा में मेवाड़ का लहजा साफ झलकता है. इनका पहनावा और पारिवारिक ढांचा अब भी पुराने नियमों के मुताबिक ही है.

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